शौईरी-साज़ा (Sair Festival) – कुल्लू घाटी का पारंपरिक कृषि पर्व
सभी को “शौईरी-साज़ा” या “अश्विन संक्रांति” की हार्दिक शुभकामनाएं!
क्या आप जानते हैं कि कुल्लू और हिमाचल के कुछ खास इलाकों में एक खास त्योहार मनाया जाता है, जो सिर्फ फसल से ही नहीं बल्कि संस्कृति, परंपरा और सामूहिक उल्लास से भी जुड़ा है? यह पर्व है – शौईरी-साज़ा या सैर उत्सव।
🌾 क्या है शौईरी-साज़ा या सैर उत्सव?
शौईरी-साज़ा, जिसे कई जगहों पर "सैर" भी कहा जाता है, एक प्राचीन कृषि उत्सव है जिसे हर साल आश्विन महीने की पहली तिथि (Asauj 1) को मनाया जाता है। अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार यह सितंबर के मध्य से अक्टूबर के मध्य तक आता है।
यह पर्व खासतौर पर कुल्लू घाटी, मंडी और शिमला के ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े उत्साह से मनाया जाता है। इस दिन को "नई फसल के आगमन का प्रतीक" माना जाता है – खासकर धान, मक्का, कोदा, उड़द आदि फसलों की कटाई की शुरुआत के रूप में।
🌟 त्योहार का सांस्कृतिक महत्व
- ऋतु परिवर्तन का संकेत: वर्षा ऋतु के अंत और शरद ऋतु के आगमन का प्रतीक।
- देवताओं को अर्पण: नई फसल का पहला अंश गांव के देवता को चढ़ाया जाता है।
- पारंपरिक व्यंजन: पटांडे, सिड्डू, भुट्टे और ताजे फल बनाए जाते हैं।
- सामूहिक उत्सव: लोग एक-दूसरे से मिलते हैं, बधाइयां देते हैं और मेलों का आनंद लेते हैं।
🏡 कैसे मनाते हैं शौईरी-साज़ा?
- कुल्लू में इसका विशेष महत्व है और इस दिन कुल्लू के लोग अपने से बड़ों को जूब (ध्रुवा) देकर आशीर्वाद लेते हैं
- परिवार में पारंपरिक भोजन जैसे की भल्ले-रोटी और पतरोड़ू इत्यादि तरह तरह के व्यजन बनाते हैं
- जूब लेकर सामने वाले को आशीर्वाद के साथ अखरोट और खिला देते हैं
- कई गांवों में सांस्कृतिक कार्यक्रम और मेले लगते हैं।
💬 अंतिम शब्द
शौईरी-साज़ा केवल एक कृषि उत्सव नहीं बल्कि हिमाचल की उस जीवंत परंपरा का प्रतीक है जो प्रकृति, देवता और समुदाय को आपस में जोड़ता है।
यह पर्व हमें सिखाता है कि कैसे संस्कृति और प्रकृति एक-दूसरे की पूरक हैं। इसे मनाते समय अपनी जड़ों को जानने का प्रयास करें और इस परंपरा को अगली पीढ़ियों तक पहुँचाएं।
आप को "शौईरी-साज़ा" (अश्विन संक्रान्ति) की हार्दिक शुभकामनाएं !
